मैं पृथ्वी हूँ
मैं ही आकाश
मैं ही धरती हूँ
आग लगा कर
जल से बुझाने वाली
मैं ही हूँ
मनुष्यों के नए नए
अविष्कारों से परेशान
अपने मतलब के लिए
इस्तेमाल करने वालों से
मैं दुखी यहां रो रही हूँ
ये मेरे ही आँसू
बाड़ का रूप ले रहे हैं
इन्हें ज़िन्दगी देने वाली
और लेने वाली भी मैं
पर फिर भी इनकी नज़रों में
बुरी हूँ मैं
है एक शर्त इस बार मेरी
गर ये लौटा दे मुझे मेरी पहचान
तो इनकी धड़कने बक्श दूँ मैं...
~Auldrin

No comments:
Post a Comment